“बीए फाइनल ईयर” के जितने कलेक्शन एक दिन में आए उतने तो साढ़े तीन सौ करोड़ वाली फिल्म में नहीं आए
छत्तीसगढ़ी फिल्मों का बाजार और संभावनाएं बहुत सकारात्मक है

सिनेमा 36. प्रणव झा निर्देशित बीए फाइनल ईयर दूसरे हफ्ते में एंट्री लेने को है। फिल्म की ओपनिंग को लेकर ट्रेड में कई तरह की बातें चलीं। हां… फिल्म की हाइप को देखते हुए अंदाजा था कि फर्स्ट शो हाउसफुल रहेगा। न भी रहा तो अस्सी प्रतिशत दर्शक संख्या रहेगी। ये माना कि फर्स्ट शो हाउसफुल नहीं रहा लेकिन जैसा कि कहा जा रहा है संडे को प्रभात सिनेमा का कलेक्शन 75 हजार रहा। पहला विक प्रभात में लगभग ढाई लाख जाने की संभावना है।
शाम और रात के शो आईपीएल के चलते प्रभावित रहते हैं। महावीर जयंती, हनुमान जयंती, जगह जगह चलने वाले अनगिनत भंडारे। चुनावी माहौल। गांवों में शादियों का सीजन चल रहा है। आज दूरदराज से आने वाले मजदूर जो चावड़ी बाजार में खड़े नजर आते थे। वे भी दिखाई नहीं दे रहे हैं। उन्हें भी चुनाव प्रचार के लिए हायर कर लिया गया है। लोकल बाजारों में भी बढ़ती गर्मी के कारण भीड़ कम है। ऐसे में बीए फाइनल ईयर के कलेक्शन निश्चित रूप से प्रशंसनीय हैं। एक दिन में इतने कलेक्शन वर्तमान रिलीज दोनों हिन्दी फिल्म में भी नहीं आए। जिनका बजट करोड़ों रुपये का था। रीजनल फिल्में बनती रहती चाहिए। टेक्निकली अब ये फिल्मी पर्दे पर एक चमक पैदा करने लगी हैं। निरंतरता बने रहेगी तो कुछ नए प्रयोग और नए सब्जेक्ट के प्रति भी दर्शकों का रुझान बढ़ेगा आनेवाली कुछ प्रयोगधर्मी फ़िल्मों की जानकारियां भी मिलने लगी हैं, जो सीजी फिल्म इंडस्ट्री के लिए अच्छा संकेत है।
मैदान और छोटे मियाँ बड़े मियाँ की असफलता के बाद मुंबई का Gaiety Galaxy सिनेमा कुछ दिनों के लिए बंद कर दिया गया है। यह व्यथा है मनोज देसाई जी की, जो किसी ज़माने में खुद एक फिल्म मेकर रहे हैं। बात अगर सवा करोड़ के बजट की हो तो साढ़े तीन सौ करोड़ की फिल्म भी तो आई। क्या हुआ उसका। जितने कलेक्शन इसमें आ रहे हैं उसमें आए क्या? हां यह कह सकते हैं कि मैदान और छोटे मियां बड़े मियां तो बहुत सी स्क्रीन में रिलीज हुई। यहां तो बाल्टी एक ही थी। बावजूद सीजी फिल्मों का एक दर्शक वर्ग है जो फिल्में देख रहा है।
हमें अब उस नजरिए या सोच से उबरना होगा कि बड़े बजट की फिल्म का ये हाल हुआ। चाहे फिल्म बीस लाख की हो या दो करोड़ की। अगर लोग आ रहे हों तो कुछ तो बात है। दूसरा यह कि हम निर्देशकों की कार्यशैली पर भी सोच सकते हैं। निःसंदेह सतीश जैन की फिल्म देखने वाला एक वर्ग है। हो सकता है वो सालभर उनकी फिल्म का इंतजार करे। हर किसी का अपना तरीका होता है काम का।
( श्याम सिनेमा के ओनर लावण्य तिवारी से अनौपचारिक चर्चा पर आधारित लेख)