डराएगी नहीं, दिल में समाएगी ‘सुकवा’
मनोज वर्मा निर्देशित एक बेहतरीन सिनेमा
रेटिंग 4.15/5
सिनेमा 36. साल की शुरुआत मनोज वर्मा निर्देशित सुकवा से हुई। भूलन द मेज में नेशनल अवॉर्ड लाकर उन्होंने न सिर्फ खुद बल्कि छत्तीसगढ़ की अलग पहचान बनाई है। जाहिर है उनकी हर कृति सबसे अलहदा होगी।
सुकवा दंतकथा पर आधारित फिल्म है। जिसमें एक परेतिन (गरिमा दिवाकर) एक मनुष्य मोहिनी ( दीक्षा जायसवाल) को पाल पोसकर बड़ा करती है। हालांकि सुकवा का परेतिन बनने की भी एक कहानी है जिसे बताने से अच्छा फिल्म में देखना इंट्रेस्टिंग लगेगा।
कॉलेज में राज (मन कुरैशी) और मोहिनी की मुलाकात होती है। दोनों में प्रेम की कोपलें फूटती हैं। राज के पिता दोनों की शादी के लिए राजी हो जाते हैं और बात पूरे गांव में फैल जाती है कि महाराज अपन बेटा के बिहाव परेतिन सुकवा के बेटी संग करावत हे। देखना दिलचस्प होगा कि क्या परेतिन की बेटी की शादी हो पाएगी? सुकवा आखिर परेतिन कैसे बनी।
अभिनय
कलाकारों में सबने अच्छा आउटपुट दिया है। मन कॉलेज स्टूडेंट में जमे हैं तो दीक्षा की मासूमियत निखरकर आई है। पुष्पेंद्र सिंह का किरदार स्ट्रॉन्ग है। क्रांति दीक्षित के पास अपनी अदायगी दिखाने लायक रोल नहीं मिल पाया। संजय महानंद ने छोटे चन्द्राकार की बढ़िया भूमिका की है। मनोज जोशी की पिछली फिल्मों में जैसा टेंपरामेंट रहा है, इसमें नहीं दिखा लेकिन जैसा किरदार वैसा काम किया है। ओमी स्टाइलो तो अब दोस्त वाली भूमिका में सदाबहार बन गए हैं।अंजली चौहान, हेमलाल कौशल समेत अन्य आर्टिस्ट का काम बढ़िया है।
निर्देशन/ स्क्रीनप्ले/ डायलॉग/ लोकेशन/ सिनेमेटोग्राफी
मनोज वर्मा का निर्देशन रस्सी की गांठ की तरह कसा हुआ है। स्क्रीनप्ले बिल्कुल गुत्थमगुत्था है। चुटीले और गहराई लिए हुए संवाद हैं। लोकेशन काफी खूबसूरत लिए गए हैं। सिनेमेटोग्राफी कमाल की है, जो कि मजबूत फ्रेमिंग की ओर इशारा करती है। इस तरह की फिल्मों में लाइटिंग का बड़ा खेल होता है।
गीत-संगीत/ पंचेस/ बीजीएम
गीत संगीत कर्णप्रिय हैं। आप हर सॉन्ग को एंजॉय कर सकेंगे। पंच की बात करें तो इंसान और प्रेत में तुलना की गई है। एक संवाद में हीरो परेतिन से कहता है, हमन भूत प्रेत से डरत रहेन लेकिन इंसान ले जादा फर्ज तो आपमन निभावत हो। बीजीएम अच्छा है, थोड़ी और गुंजाइश हो सकती थी।
क्यों देखें
फिल्म लव स्टोरी होते हुए भी लव स्टोरी नहीं लगती। भूत प्रेत की दुनिया की कल्पना हमें कहीं और लेकर चली जाती है। फिल्में तो कई बन रही हैं, बनती रहेंगी लेकिन एक अच्छा सिनेमा देखना हो तो ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं है।
कमियां
टेक्नोलॉजी के दौर में गांव और वहां की सोच भी बदलती जा रही है। तीस चालीस साल के लोग परेतिन वाले किस्से को जिस नजर से देखते हैं क्या आज का टीनएजर्स पचा पाएंगे? यह सवाल हम आडियंस पर छोड़ देते हैं।