सीजी सिनेमा में नया एसेंस है यादव जी के मधु जी
नए चेहरों से सजी कॉमेडी जॉनर की फिल्म

रेटिंग 4/5
सिनेमा 36. इस हफ्ते रिलीज हुई यादव जी के मधु जी नाम के अनुरूप अलग तरह की फिल्म है। अब तक जितनी भी सीजी फिल्में आईं उन सबसे डिफरेंट एसेंस इस फिल्म में है। हालांकि फिल्म में कोई बड़ा चेहरा नहीं है इस लिहाज से कहानी और कंटेंट ही फिल्म का हीरो माना जा सकता है।
कहानी
कहानी रिटायर्ड पर्सन यादव बाबू की है जिसने शादी नहीं की है। वो अपने अंदाज में जिन्दगी जी रहा होता है। उसके भाई की फैमिली ही उसकी फैमिली है। भतीजे विक्रम ( रोहित वैष्णव) का रिश्ता जहां तय होता है वहां उसकी मुलाकात मधु (श्वेता पांडे) से हो जाती है। मधु वैष्णवी की बुआ है। मधु भी यादव बाबू की उम्र के आसपास की है। दोनों में दोस्ती और फिर प्रेम का अंकुरण हो जाता है। इधर विक्रम ( रोहित वैष्णव) और चारुल ( वैष्णवी जैन) की शादी भी फिक्स हो जाती है। राइटर के लिए बड़ी चुनौती थी कि कैसा ड्रामा रचा जाए कि फिल्म की एंडिंग जस्टिफाई की जाए। फिल्म जैसे जैसे आगे बढ़ती है कई सरप्राइज़ एलिमेंट मिलते जाते हैं। फिल्म कहती है कि प्रेम में उम्र आड़े नहीं आती। हर किसी के जीवन में एक ऐसा पड़ाव आता ही है जब उसे किसी मधु या यादव रूपी पेड़ की छांव की आवश्यकता महसूस होती है।
स्टोरी/डायरेक्शन/ स्क्रीनप्ले/सिनेमेटोग्राफी/ डायलॉग
आदिल खान के कंधों पर सिर्फ डायरेक्शन की नहीं बल्कि स्टोरी से लेकर स्क्रीनप्ले और सिनेमेटोग्राफी की भी जिम्मेदारी थी। वे हर पायदान में अच्छे मार्क्स से पास होते दिखाई देते हैं। स्टोरी में काफी फ्रेशनेस है। डायरेक्शन कसा हुआ है। नए चेहरों से मनमाफिक काम लेना भी तो एक चुनौती होती है, हालांकि ज्यादातर आर्टिस्ट रंगमंच से ही थे, फिर भी ड्रामा और सिनेमा में अंतर तो रहेगा ही। स्क्रीनप्ले की तारीफ इसलिए कि लंबी फिल्म के बावजूद आप बोर नहीं होते।सिनेमेटोग्राफी में आदिल ने कोई कमी नहीं छोड़ी। डायलॉग के मामले में भी प्रशंसा की जानी चाहिए। एक संवाद है औरत कहती हुई नहीं सहती हुई अच्छी लगती है। यह वाक्य समाज में महिलाओं की स्थिति पर व्यंग्य है। बुढ़ापे के लिए कहा गया कि बुढ़ापा क्लाइमेक्स के पहले का सीन है। यह बेस्ट होना चाहिए। एक अन्य संवाद है, लड़की को बंद करने से बात बंद नहीं होगी। नौकरी को लेकर एक बात कही कि नौकरी से शादी करने वाले तो बहुत थे। यह पंचेज आपको आपके आसपास की घटनाओं को महसूस कराते हैं।
गीत संगीत/ बीजीएम/ एक्टिंग/ एडिटिंग
यह एक रियलिस्टिक सिनेमा है। गीत संगीत सिचुएशनल हैं। जब तक फिल्म दिलों दिमाग में रहेगी गाने भी बने रहेंगे। बीजीएम वहीं है जहां इसकी जरूरत है। क्वालिटी भी उम्दा। एडिटिंग पर सवाल जरूर उठ सकते थे क्योंकि फिल्म की लंबाई लगभग 2 घंटा 50 मिनट है। आज के हिसाब ये टाइमिंग स्टैंडर्ड नहीं मानी जाती लेकिन कोई भी सीन थोपे हुए नहीं लगते। फिर भी दस मिनट पर कैंची चलाने की गुंजाइश निकाली जा सकती थी।
एक्टिंग में हर किसी ने अपने किरदार के साथ न्याय किया है। हम मेन आर्टिस्ट की बजाय उनकी बात करेंगे जिनका कम लेकिन बड़ा मारक अभिनय है। यादव बाबू की फैमिली में चाहे भाई विजय ( नवीन) हो या विजय की वाइफ मीरा ( प्रियंका) की या फिर इनकी बेटी वीनु ( संस्कृति) की। सबने यादगार भूमिका निभाई है। इतना ही नहीं चारुल की फैमिली में उनके पिता बलराम ( विक्रम ठाकुर), भाई ( समक्ष जैन) ने भी कमाल का अभिनय किया है। रही सही कसर डॉक्टर का रोल निभाने वाले डॉक्टर जफर ने पूरी कर दी। वैष्णवी जैन ने लीड एक्ट्रेस के तौर पर डेब्यू किया है। उनकी परमार्मिंग अच्छी है लेकिन कहीं कहीं एक्सप्रेशन छूट सा जाता है। यादव बाबू ( सुनील चिपड़े) ने कैरक्टर को पूरी तरह जिया है। श्वेता (मधु जी) का काम भी सराहनीय है। उनके हिस्से में भारी भरकम डायलॉग आए हैं। रोहित वैष्णव भी एक्टिंग में पूरी तरह पास हैं।
क्यों देखें
यह फिल्म उन सभी को देखनी चाहिए जो एक अच्छी फिल्म देखना चाहते हैं। इस छत्तीसगढ़ी सिनेमा को अगर ओटीटी पर लॉन्च किया जाए तो इसकी पहुंच व्यापक हो सकती है। गैर छत्तीसगढ़ी क्षेत्रों को भी पता चलेगा कि रीजनल सिनेमा कितना अच्छा बनाया जा रहा है।