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मया देदे मयारु 2: एक्टिंग से ज्यादा चुनौती भाषा में थी?

क्या टिपिकल छत्तीसगढ़ी आज की जरूरत है?

भूपेंद्र साहू– प्रेम चंद्राकर निर्देशित फिल्म मया देदे मयारु 2 की शूटिंग पूरी हो चुकी है। फिल्म का फोटोशूट भी संपन्न हो गया है और अब पोस्ट-प्रोडक्शन का काम शुरू हो गया है। चर्चा यह है कि इस फिल्म में कलाकारों ने जितनी मेहनत अभिनय में नहीं की, उससे कहीं अधिक मेहनत भाषा पर करनी पड़ी। फिल्म में टिपिकल छत्तीसगढ़ी का प्रयोग किया गया है। यह स्टोरी की मांग थी या पुराने निर्देशकों की फिलॉसफी  यह वही बेहतर जानते हैं।

बताया जाता है कि संवादों के उच्चारण में कलाकारों के पसीने छूट गए। कई ऐसे पारंपरिक शब्द थे जिन्हें आज की पीढ़ी के कलाकार बोलते समय असहज महसूस करते थे। गांवों की बदलती बोली भी इस मुश्किल की वजह बनी। अब गांवों में बच्चे घरों में हिंदी बोलने लगे हैं। खुद निर्देशकों के घरों में भी अगली पीढ़ी के बच्चे प्रायः हिंदी में ही बातचीत करते हैं। दादी-नानी या पुरानी पीढ़ी ही अब बच्चों से छत्तीसगढ़ी में बात करती है। आज की बहुएं भी अपने बच्चों से हिंदी में संवाद करती हैं।

ऐसे में सवाल उठता है क्या भाषा की कठिनता बनाए रखना उसकी पवित्रता  का प्रतीक है, या यह नई पीढ़ी और दर्शकों के बीच दूरी बढ़ाने का कारण बनेगी?

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