मिथक को तोड़ने में कामयाब रहे “छत्तीसगढ़ के मनमोहन देसाई”
MCB 2 के फिफ्टी डे पर एनालिटिकल थिंकिंग पार्ट 1
Cinema 36. जब सतीश जैन अमलेश नागेश को लेकर “ले सुरु होगे मया के कहानी” बना रहे थे तो कहा जा रहा था कि कॉमेडियन से क्या ही करा लेंगे। अरे वो तो हीरो जैसा दिखता नहीं है, कैसे हीरो ले रहे। इस तरह की तमाम बातों को उस वक्त विराम लग गया जब ले शुरू होगे… जबरदस्त चल पड़ी। हां लेकिन इस सफलता का श्रेय अमलेश नागेश को ही दिया जाने लगा, गोया कि सतीश जैन अपनी फिल्म के खुद हीरो होते हैं।
जब जैन ने मोर छैयां भुईयां 2 के लिए अमलेश को एप्रोच किया तो मानदेय को लेकर बात नहीं बनी। उन्होंने दीपक साहू को उठा लिया। फिल्म ब्लॉक बस्टर साबित हुई। इस सफलता के पीछे एक बड़ी उपलब्धि यह भी रही कि जैन ने यह मिथक तोड़ा कि ले सुरु होगे… अमलेश की वजह से चली। और यह जरूरी भी था।
MCB 2 की सफलता पर भी ट्रेड कई बातें आईं जैसे उनकी हर सफल फिल्मों के लिए आती हैं। कहा गया, अरे भई 24 साल पुराना ब्रांड है। चलना ही था। अरे ये तो ब्रांड का असर है। लेकिन सवाल खड़ा होता है कि ब्रांड का असर है तो मया 1 के बाद मया 2 को कितनी सफलता मिली थी और मया 3 का क्या हश्र हुआ। हालांकि हम MCB 1 की तुलना मया से नहीं कर सकते लेकिन मिसाल तो दी जा सकती है।
सतीश जैन ने एक सवाल में कहा था कि फिल्में मेरे नाम से नहीं चलती। जब हम यूट्यूब पर कोई जानकारी या लुक डालते हैं तो बड़ी सावधानी बरतते हैं। जनता को लुक, गाने और फिल्म का एसेंस पसंद आता है। हेंडिग में हमने जैन को मनमोहन देसाई का तमगा दिया है। इसके पीछे का राज यह है कि वे खुद देसाई के बड़े प्रशंसक रहे हैं। जैन की फिल्मों में भी देसाई की झलक दिखाई देती है। लेकिन संवाद बहुत सिंपल होते हैं। दर्शकों को लगता है कि उनके ही आसपास की घटना है। तो समापन इस बात से जैन को स्टार मेकर भी कहा जाता है लेकिन मिथ ब्रेकर भी हैं।
पार्ट 2 में पढ़ें: पब्लिसिटी में ज्यादा खर्च नहीं करते फिर भी दर्शक टूट पड़ते हैं। ऐसा क्यों? एक विश्लेषण