एक अच्छी फिल्म को लम्बाई मार गई?
अच्छी कोशिशें हमेशा सराही जानी चाहिए लेकिन....

सिनेमा 36. इस हफ्ते बहु प्रतीक्षित छत्तीसगढ़ी फिल्म दंतेला रिलीज हुई। फिल्म को डॉक्टर्स ग्रुप ने बनाया है। रिलीज से पहले दर्शकों के बीच का तो पता नहीं लेकिन ट्रेड के बीच इसकी लंबाई लेकर काफी चर्चा रही। और हुआ भी वही जिसकी आशंका थी। फिल्म को कोई खास ओपनिंग नहीं मिल पाई। पहले दिन ही फिल्म कलेक्शन के मामले में धराशाई होती दिखी।
अगर कहानी पर जाएं तो यह छत्तीसगढ़ के चरचरी और वहां के लाल पत्थर पर केंद्रित है। दाऊजी पानी को अपना अधिकार मानते हैं यही वजह है कि कहीं और कुआं खोदने की मनाही है। उनका जो कुंआ है उसे 15 मिनट के लिए खुला रखा जाता है। भैरू साहस दिखाते हुए नया कुआं खोद देता है। लेकिन उसकी हत्या हो जाती है। फिल्म धीमे धीमे हौले हौले अपने गंतव्य यानी क्लाइमेक्स तक पहुंचती है और सच्चाई का खुलासा होता है कि ये सब पूरा तामझाम दंतेला नाम महिला करती है जो 100 साल पहले मर चुकी थी।
अभिनय
अगर नम्बर देने हैं तो राया डिंगोरिया सबसे आगे रही अभिनय के। फर्स्ट हाफ तक एवरग्रीन विशाल का अभिनय बढ़िया है लेकिन इंटरवल के बाद उनका घिसा पिटा स्टाइल सामने आता है। डॉक्टर राज दीवान भी अपनी अदाकारी में उत्तीर्ण होते नजर आए हैं। ज्योत्सना ताम्रकार के हिस्से में जितना आया उन्होंने उसे अच्छे से निभाया। शांतनु भी बेहतर रहे। अनिल सिन्हा मिमिक्री में तो जमे लेकिन उनकी मौजूदगी उतना जरूरी नहीं लगी। पूरन किरी गेस्ट अपीरियंस रहे लेकिन उनकी मौजूदगी बोलती है। गौटनीन के रूप में वीणा ने अच्छे तार छेड़े हैं।
निर्देशन/ स्क्रीनले/ बीजीएम
जब आप किसी ट्रेन में बैठ जाएं और आपको बताने में समय लगे कि जाना कहां है तो टिकट चेकर भी क्या करे। ये बात इस फिल्म पर भी लागू होती है। हालांकि समझ में आता है कि क्या हो रहा है, इसे समझाने की कोशिश भी भरपूर की गई है लेकिन मेट्रो के दौर में तांगा ला दिया हो जैसे। स्क्रीन प्ले इंटर तक स्लो है जिसका असर निर्देशन में साफ देखा जा सकता है। इंटर के बाद सब कुछ ठीक होने लगता है। बैकग्राउंड म्यूजिक बढ़िया रहा।
गीत संगीत/ आर्ट/ सिनेमेटोग्राफी
गाने कम हैं लेकिन अच्छे हैं। म्यूजिक अच्छा लगता है। रंगोली आर्टिस्ट प्रमोद साहू ने सेट डिजाइन किए हैं, काफी अच्छे बन पड़े हैं। संभवतः यह उनकी डेब्यू मूवी है। सिनेमेटोग्राफी में अनुराग और सुक्खी ने बेस्ट देने की कोशिश की है।
कमियां
एडिटिंग कमजोर है। यह ऐसी कमजोरी है को कई बीमारी यानी सवाल उठाती है। और यह सवाल फिल्म देखते वक्त आपके मन में जरूर उठेंगे। डीआई नहीं हुई है। टेक्निकल फॉल्ट स्क्रीन पर दिखाई देता है। जिस गांव के लोग पानी के लिए मोहताज हैं उन्हें दारू आसानी से कैसे मिल जाती है। 100 साल पहले दाऊ जैसा दिखता था आज भी लगभग वैसा ही नज़र आता है मानो अमर बेल खाकर जन्मा हो।
क्यों देखें
जिन्हें यह शिकायत रहती है कि छत्तीसगढ़ी फिल्में प्यार मोहब्बत से परे नहीं जा सकती, उनके लिए यह जवाब है। कम से कम मेकर्स ने कुछ अलग करने की कोशिश तो की। हालांकि कई बार कुछ अलग करने वाले सबसे अलग भी हो जाते हैं। मैं इस फिल्म को थ्रिलर तो नहीं लेकिन सस्पेंस कहूंगा। जिन्हें सस्पेंस चाहिए वे जरूर जाए लेकिन इंटर तक दूध भात मानकर।