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खारुन पार… एक अच्छी कोशिश जो आगाज से ज्यादा अंजाम पर असर छोड़ती है

छत्तीसगढ़ी सिनेमा का रियलिस्टिक दौर

रेटिंग 3/5

सिनेमा 36. दिव्यांश सिंह निर्देशित खारुन पार छत्तीसगढ़ की पहली रियलिस्टिक फिल्म है जो आपको अहसास कराती है कि ये कुछ अलग सिनेमा है। केंद्र बिंदु साइको पर्सनैलिटी क्रांति( क्रांति दिक्षित) है जो जब भी स्क्रीन पर आता है जितना कहता उससे ज्यादा दर्शकों को सोचने पर मजबूर कर देता है कि आखिर क्यों और क्या कह रहा। जेन ज़ी टीम ने फिल्म बनाई है यानी सभी की उम्र 28 के आसपास ही है। टेक्निकल तौर पर स्ट्रॉन्ग मूवी धीमी और डार्क भी लगती है लेकिन इंटर होते तक आस भी जगा देती है।

फिल्म में तीन बिखरी कहानियां हैं जो आपस में कनेक्टेड हैं। पिता (सुरेश गोंडाले) पुत्र( शील वर्मा) का अंतर्द्वंद्व, रानी ( एल्सा घोष) मेकअप आर्टिस्ट बनने का सपना, रानी और बबलू (शील) की लव स्टोरी, पारुल (राया डिंगोरिया) विवेक (एवरग्रीन विशाल) की केमेस्ट्री। इन कहानियों में पारुल का पति क्रांति सेंट्रल कैरेक्टर है।

इंटरवेल तक फिल्म इन्हीं के इर्दगिर्द घूमती है और मध्यांतर के बाद ये सभी फिल्म का राउंड लगाते हैं। साइको किरदार और उसकी डायरी आपको आगे क्या और आखिर क्यों के लिए प्रेरित करते हैं। खारुन नदी के पार स्थित फॉर्म हाउस भी सस्पेंस की एक कड़ी है। फिल्म का प्री क्लाइमेक्स और क्लाइमेक्स पैसा वसूल साबित हो सकता है।

अभिनय

क्रांति दीक्षित अगर तारीफ के सर्वाधिक नंबर ले जाते हैं तो इसमें जरा भी संदेह नहीं क्योंकि नेचुरल एक्टिंग कठिनतम मानी जाती है। इसके बाद सारे किरदार अपनी जबरदस्त छाप छोड़ते दिखाई देते हैं। हो सकता है उन्हें भी यह फिल्मी उनकी पिछली 40 फिल्मों में सबसे ज्यादा करीब लगे या हो सकता है उन्हें सबसे प्रिय यह किरदार लगे। पिता के रहते हुए मृत पिता से बातें करना उनके लिए कितना कठिन रहा होगा ये वही जान सकते हैं।

स्क्रीनप्ले/निर्देशन/ सिनेमेटोग्राफी

फिल्म का पहला 15 मिनट आपको बांधे रखता है फिर फिल्म खिंची सी महसूस होती है जो मध्यांतर तक ऐसे ही चलती है। इंटर के बाद की स्पीड अच्छी है। यानी स्क्रीनप्ले मध्यम से तेज की श्रेणी में है। निर्देशन औसत से काफी बेहतर है। रियलिस्टिक सिनेमा में निर्देशकीय क्षमता खुद ब खुद नजर आती है। सिनेमेटोग्राफी कमाल की इसलिए है कि हर शॉट में कैमरे का विशेष इस्तेमाल हुआ।

बीजीएम/ गीत संगीत

फिल्म के दृश्य के हिसाब से बीजीएम शानदार बन पड़ा है। सुरेश गोंडाले और हेमंत निषाद के दृश्यों का बैकग्राउंड म्यूजिक पंचायत जैसी सीरीज की याद दिलाता है। यह फिल्म म्यूजिकल तो नहीं थी और न ही ज्यादा गाने। इसलिए म्यूजिक औसत ही रहा।

कमियां

सच्ची घटना से प्रेरित इस फिल्म में जिस सस्पेंस थ्रिलर का दावा किया गया, उसकी पोल खुल गई। न तो थ्रिलर और न उम्मीद के मुताबिक सस्पेंस। सस्पेंस देखकर कोई खास रोमांच महसूस नहीं होता। फिल्म कहानी की डिमांड करती है, जबकि कहानी सप्लाई की गुंजाइश कम महसूस होती है। फर्स्ट हाफ आप बोर होकर मोबाइल के नोटिफिकेशन चेक कर सकते हैं।

क्यों देखें

नए जॉनर की फिल्म है। छत्तीसगढ़ी सिनेमा का नया रंग है। एक अच्छा प्रयास है। सिंक साउंड है यानी अलग से डबिंग नहीं हुई है। अगर आप क्रांति दीक्षित के फैन हैं तो यह फिल्म आपके लिए ही बनी है।

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