प्रोड्यूसर को जल्द से जल्द हिसाब देना डिस्ट्रीब्यूटर की जिम्मेदारी
सीनियर डिस्ट्रीब्यूटर सुनील बजाज ने साक्षात्कार में कहा
Cinema 36. किसी भी फिल्म की रिलीजिंग में डिस्ट्रीब्यूटर की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। एक डिस्ट्रीब्यूटर टाकीज और प्रोड्यूसर के बीच सेतु का काम करता है। ऐसा देखने सुनने में आया है कि कुछ वितरक इस मामले में ढिलाई बरत रहे हैं। वे प्रोड्यूसर का पैसा तो दूर हिसाब तक नहीं दे रहे हैं। आखिर वे क्यों हिसाब देने में आना कानी कर रहे हैं, ये समझ से परे हैं। वैसे एक अच्छे वितरक का क्या दायित्व होता है ये जानने के लिए हमने बालीवुड और सिने 36 के जाने माने डिस्ट्रीब्यूटर सुनील बजाज से बात की।
सिनेमा 36. क्या आपने किसी प्रोड्यूसर का पैसा रोका है?
सुनील बजाज: नहीं। वैसे ये सवाल तो उन प्रोड्यूसर से पूछना चाहिए जिनकी फिल्में मैंने रिलीज की थी।
सिनेमा 36. आप चुनिंदा फिल्में ही क्यों डिस्ट्रीब्यूट करते हैं?
सुनील बजाज: प्रोड्यूसर को SRK के जितनी ही स्क्रीन चाहिए, बस बात यही से बिगड़नी शुरू होती है । SRK की प्रथम आठ दस फिल्में सम्पूर्ण भारत में केवल चुनिंदा सिनेमाघरों में ही लगती थी मगर आज के मेकर्स को पहले ही दिन प्रदेश के हर गाँव/शहर में फ़िल्म लगानी होती है। जो,कि वर्तमान स्थिति में बहुत अधिक जोखिम उठाने जैसा है।
सिनेमा 36: प्रोड्यूसर के पैसे कितनी जल्दी मिल जाने चाहिए?
सुनील बजाज: वैसे तो फिल्म उतरते ही हिसाब बन जाना चाहिए। यदि टाकीज से पैसे नहीं भी आए हो तो वितरक की जिम्मेदारी होती है कि वो हिसाब प्रोड्यूसर को दे। हो सकता है उसे अपनी जेब से प्रोड्यूसर को हिसाब का पैसा देना चाहिए क्योंकि आपको इसलिए तो नियुक्त किया जाता है। मैंने तो दिए हैं। लेकिन मैं इसमें एक महत्वपूर्ण चीज और जोड़ते चलूंगा कि टॉकीज से पैसा नहीं आने की स्थिति में हर कोई अपने ओर से देने में सक्षम नहीं होता। इसीलिए जेब से देने वाली बात को स्टैंडर्ड नहीं माना जाना चाहिए। लेकिन लेन देन सिनेमा वालों से पूरा कर निर्माता का पैसा उसको दिलाना में पूरा प्रयास किया जाना चाहिए ।
सिनेमा 36: कुछ वितरक साल सालभर हिसाब नहीं देते, उनके लिए क्या कहेंगे?
सुनील बजाज: देखिए, मैं अपनी बात करता हूं। दूसरों का वे जाने। अगर कॉमन बात कहूं तो यदि कोई वितरक ऐसा करता है तो वो अपने प्रोफेशन से मजाक कर रहा है।
सिनेमा 36. अगर सतीश जैन की फिल्म देखने ओपनिंग में एक हजार दर्शक आते हैं, तो किसी और की फिल्म ( ज्यादातर फिल्मों) देखने पहले दिन 50 लोग भी नहीं आते। क्या दर्शक इतना ब्रह्मज्ञानी हो गया है कि बिना देखे ही रिजेक्ट कर दे?
सुनील बजाज: सतीशजी की फ़िल्म से दर्शकों को अपार आशाएं रहती हैं और वे पूरी भी होती हैं। उनका अपना एक दर्शक वर्ग है जो केवल उन्हीं की ही फ़िल्म देखता है। उनकी फिल्म बनाने की विधा ही बहुत अलग है जो उनको आम निर्देशक से विशेष बनाती है। और सच कहें तो फ़िल्म बनाना बहुत- बहुत आसान हैं, मगर एक इतिहास रचनेवाली फ़िल्म बनाना आसमान के तारे गिनने जैसा है। और सतीशजी हमेशा तारों को सही गिनकर दर्शकों को खुश कर देते हैं। इसीलिए दर्शकों को उत्साह पहले दिन से ही मिल जाता है।