मामा के त्याग और समर्पण की मिसाल चंदामामा’
प्यार मोहब्बत से हटकर है कहानी
रेटिंग 2.5/5
सिनेमा 36. इस हफ्ते रिलीज हुई अभिषेक सिंह निर्देशित चंदामामा नाम के अनुरूप फिल्म है। एक मामा अपने भांजे के लिए कितना समर्पित और त्यागशील हो सकता है, यह इस फिल्म में देखा जा सकता है। जैसा कि हम जानते हैं कि छत्तीसगढ़ भगवान श्रीराम का ननिहाल है। यही वजह है कि यहां भाजों में श्रीराम का रूप देखा जाता है और मामा उनके पांव छुते हैं। ऐसी मान्यता है कि उनका जूठा खाने से स्वर्ग के रास्ते खुल जाते हैं। हमारा देश आस्था पर टिका हुआ है। और इसी आस्था पर यह फिल्म केंद्रित है जिसका नाम है चंदा मामा।
कहानी शुरू होती है कर्जदार पिता से जो उधारी वापस नहीं कर पाता तो खुदकुशी से समझौता कर लेता है। वो चाहता तो दोनों बच्चों और पत्नी को भी है लेकिन बच्चे (भाई बहन) बच जाते हैं और दंपती की मौत कीटनाशक से हो जाती हैं। सत्या ( दिलेश) अपनी बहन की परवरिश करता है। बड़ी होकर वो किसी से प्रेम करने लगती है। सत्या को जब पता चलता है तो वो दोनों की शादी करा देता है। शादी के सालभर बाद दोनों ओनर किलिंग के शिकार हो जाते हैं और उनके बच्चे की जिम्मेदारी सत्या यानी मामा के ऊपर आ जाती हैं। बस यहीं से मामा भाँचा की कहानी शुरू होती है जो क्लाइमेक्स तक पहुंचती है।
अभिनय
फिल्म में स्टार कास्ट कमजोर है लेकिन दिलेश की भरपूर मेहनत दिखती है। दिलेश के ऑपोजिट जो एक्ट्रेस है उस किरदार की उम्र थोड़ी ज्यादा लगी है। भांचा का रोल कर रहे बाल कलाकार ने अच्छा काम किया है।
निर्देशन/ स्क्रीनप्ले/ सिनेमेटोग्राफी/ बीजीएम
निर्देशन ठीकठाक माना जा सकता है। स्क्रीन प्ले में कसावट की कमी महसूस होती है, खासतौर पर मध्यांतर के बाद। सिनेमेटोग्राफी बढ़िया है। लोकेशन अच्छी है। बीजीएम का सिचुएशन से तालमेल बना हुआ है।
एक्शन/गीत संगीत/ कोरियोग्राफी/ संवाद
एक्शन सीक्वेंस बढ़िया है। हालांकि एक्शन इतना ज्यादा है कि आपके माथे पर बल आ जाएं और इमोशन पर बुलडोजर चल पड़े। गीत संगीत एवरेज से ऊपर हैं। कोरियोग्राफी सिंपल है जो किरदारों से मैच खाती है। संवाद अच्छे हैं लेकिन तालियों के स्तर तक नहीं पहुंच पाए।
क्यों देखें
एक इमोशनल फिल्म है जो मामा भांचा के रिश्तों के डोर से बंधी हुई है। प्यार मोहब्बत से परे है। बिना मसाला का सिनेमा कैसा हो सकता है, इसका यह उदाहरण है। छत्तीसगढ़ियापन और संस्कृति की बर्फ ठंडक देती है।