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ठेठ छत्तीसगढ़िया फिल्म है ‘बेटा’, लेकिन…

चंद्रशेखर चकोर ने बेटे पुमंग राज को किया लॉन्च

रेटिंग 2.5/5

सिनेमा 36. इस हफ्ते रिलीज हुई फिल्म बेटा में नए चेहरे की एंट्री हुई है। नाम है पुमंगराज। फिल्म में पुमंग ने बाहरु की भूमिका निभाई है। जब फिल्म शूट हो रही थी तब पुमंग की उम्र 17 साल की थी। आज वह 19 का है। ठेठ गंवईहे का रोल करने वाला पुमंग बड़ी उमंग के साथ चार्टर्ड अकाउंटेंट की तैयारी कर रहा है और उसने पहला चरण यानी फाउंडेशन क्लियर कर लिया है।

चंद्रशेखर चकोर ( वर्मा) ने बेटे को लॉन्च किया और संयोग कहिए कि फिल्म का नाम भी बेटा रखा। फिल्म आपको एक ऐसे ग्रामीण परिवेश में लेकर जाती है कि आप यदि ग्रामीण क्षेत्र में कुछ साल भी रहे हों तो सीधे कनेक्ट हो जाएंगे। मुहावरों और प्योर छत्तीसगढ़ी शब्द आपको अपने उस गांव की पगडंडियों तक ले जाएंगे जिसे लांघकर आप शहर में बस गए हों।

बेटा की कहानी कंठी ठेठवार ( चंद्रशेखर चकोर) नामक बांस वादक की है। जिसकी पत्नी की असामयिक मौत हो जाती है। पुमंग छोटा होता है इसलिए कंठी उसके लिए नवा दाई ( लेखा श्री) ले आता है। नवा दाई की तरफ से जुड़वां बच्चे होते हैं।एक साजिश के तहत कंठी की हत्या कर दी जाती है। सौतेली मां अपना रंग दिखाने लगती है और बाहरु को पढ़ाई छुड़ा गोबर कचरे का काम करवाती है। घटनाक्रम बदलने लगता है और बाहरु के जीवन में गोंदा ( हेमा शुक्ला) की एंट्री होती है। बाहरु के दोनों सौतेले भाई बिगड़ चुके हैं।  बाहरु पर उजड़ते परिवार में एकता लाने की चुनौती है।

निर्देशन/ स्क्रीनप्ले/डायलॉग/ एक्टिंग

चंद्रशेखर ने फिल्म का काफी हिस्सा अपने नाम किया है। अभिनय के साथ निर्देशन अच्छा माना जा सकता है। स्क्रीन प्ले फर्स्ट हाफ ठीक है और उसके बाद ठीक ठाक बोल सकते हैं। डायलॉग अच्छे हैं लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो सिर के ऊपर से निकल जाएं लेकिन गांव का बंदा इन संवादों को जीता नजर आएगा। प्योर छत्तीसगढ़ी स्क्रिप्ट के अपने फायदे और नुकसान दोनों होते हैं। कलाकारों का चयन अच्छा रहा,तभी तो किसी की एक्टिंग ओवर नहीं लगती। पुमंग के प्रति जो धारणा बनी हुई थी वो भी टूट गई। अब वे बालिग हो चुका है लेकिन जब शूटिंग हो रही थी तब उसने बारहवीं का एग्जाम दिया था। यानी नाबालिग (17) ही था! लेखाश्री और शिव आनंद ने अच्छी एक्टिंग की है। हेमा शुक्ला ने भी खुद को साबित किया है।

गीत संगीत/ बीजीएम/ सिनेमेटोग्राफी

गीत संगीत औसत हैं। देखने सुनने में अच्छे लगते हैं। बीजीएम में कंजूसी बरती गई है। सिचुएशन वाले सीन में और भी उम्मीद थी। सिनेमेटोग्राफी औसत है।

कमियां

स्टोरी में कोई रिलीवेंसी नहीं दिखती। कोई यह कहे कि बीस साल पहले की फिल्म है तो भी माना जा सकता है। शहरी छत्तीसगढ़ियों को प्योर शब्द कठिन लग सकते हैं। सेकंड पार्ट का स्क्रीन प्ले थोड़ा उबाऊ लगता है। छत्तीसगढ़ी लोकोक्ति का उपयोग जरूरत से ज्यादा है, नई पीढ़ी कनेक्ट नहीं कर पाती। फिल्म में ट्विस्ट की कमी है।

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