रेटिंग 2.75/5
तमाम रिश्तों में भाई बहन का स्नेह बहुत ऊंचा दर्जा रखता है। निर्देशक विजय गुमगांवकर ने इसी प्रेम की ताकत को पिरोया है तीजा के लुगरा 2 में। छत्तीसगढ़ी सिनेमा में फैमिली ड्रामा हमेशा से पसंद किया जाता रहा है। इस फिल्म में ड्रामा के अलावा कई पंच और ट्विस्ट हैं जो इसे एंटरटेनमेंट की चाशनी में डुबोते हैं।
करण (करण खान) और कुंदन (प्रकाश अवस्थी) में गहरी दोस्ती है और रिश्ते में करण कुंदन का साला भी है। करण एक ऐसे पार्टी के नेता का खास है जिसे विधानसभा चुनाव में टिकट मिलनी है। इस बीच उस नेता की हत्या हो जाती है। करण और कुंदन भी राजनीति के शिकार होते हैं और उनकी हत्या हो जाती है। करण की बहन और उसकी बेटी का सहारा बनता है करण का बेटा कार्तिक ( कार्तिक की भूमिका भी करण खान ने निभाई है)। आगे चलकर कार्तिक को पता चलता है कि उसके पिता का हत्यारा क्षेत्र का विधायक रंजीत है। क्या कार्तिक पिता की मौत का बदला ले पाएगा और क्या हत्यारे रंजीत का राजनीतिक जीवन खत्म होगा, इसका जवाब आपको फिल्म में मिलेगा।
स्क्रीनप्ले/ निर्देशन/अभिनय
स्क्रीनप्ले को कसने की पूरी कोशिश की गई है। कुछ सीन में आपको लगेगा, अरे ये कब हुआ। आप इसे सिनेमाई लिबर्टी मानकर आगे बढ़ जाएंगे। लिखी गई स्क्रिप्ट को हुबहु पर्दे पर उतारने की कला एक सफल निर्देशक में होती है। इस मामले में विजय उत्तीर्ण होते दिखाई दिए हैं लेकिन उच्चतम अंकों से नहीं। करण खान की अदायगी का कोई जवाब नहीं। थिएटर से निकला बंदा आज तक अदायगी के चलते ही चल रहा है वर्ना हिट के नाम पर उनके पास कुछ भी नहीं। प्रकाश अवस्थी शुरुआती आधे घंटे रहे हैं लेकिन भरपाई पूरी फिल्म की कर दी। फिल्म के पौन घंटे बाद विशाल ( रिंकु रजा) की एंट्री होती है। रिंकु की एक्टिंग में पहले से सुधार तो दिखा लेकिन गुंजाइश की जगह थी। रंजीत की भूमिका में पवन गुप्ता काफी जमे हैं। रंजीत की बीवी बनी पायल शर्मा अच्छी दिखी हैं। सबसे अच्छी बात यह रही कि बहन बनी ममता छत्तीसगढ़ से नहीं है लेकिन उन्होंने इसका अहसास होने नहीं दिया। कहने का अर्थ यह कि उनकी तारीफ तो बनती है। रश्मि की कला कुछ खास निकलकर नहीं आई है। एक तरह से वे खानापूर्ति ही रहीं। बोचकु ने हंसाने में कोई कमी नहीं की, वे अच्छे कॉमेडियन के तौर पर उभरे हैं। अजय सहाय की एक झलक और एक डायलॉग उनकी उपस्थिति के लिए काफी है। योगेश अग्रवाल भी कम में बम रहे। निर्माता राजन सूर्यवंशी और निर्देशक विजय ने भी अभिनय में छाप छोड़ने की कोशिश की है लेकिन राजन खुद हंसते है दर्शकों को हंसी नहीं आती। उर्वशी तो पुराने जमाने की बिंदु से कम नहीं लगी।
गीत संगीत/ संवाद/ बीजीएम
गीत संगीत अच्छा है। देखने सुनने में भी अच्छा ही लगता है। डायलॉग में भी पोटेंशियल दिखाई देता है। पवन गुप्ता के लिए चक्रव्यूह वाला डायलॉग, करण के लिए तीजा ले के जाहूं संवाद अच्छा बन पड़ा है। हालांकि उनका एक संवाद चाकरी करने वाले कुत्ते होते हैं, बहुत निगेटिव है। इससे वे लोग आहत हो सकते हैं जिनका जीवन नौकरी से ही चल रहा है। लेकिन इसे सिनेमा लिबर्टी मान लें तो किसी को बुरा नहीं लगना चाहिए। बीजीएम अच्छा है। हालात के हिसाब अच्छा संयोजन किया गया है। लोकेशन अच्छे हैं। कैमरा वर्क भी ठीक है।
कमियां
सिनेमा लिबर्टी के नाम पर दर्शकों के दिमाग से काफी खेला गया है। कोई भी घटना होनी है तो कुछ मत करो हीरो से मोबाइल भुलवा दो। पास होने की खुशी ऐसी दिखाई गई है मानो यूपीएससी क्रैक कर लिया हो। आज जमाना एआई का है और उदाहरण गूगल का दिया जाता है। तीन महीने में चुनाव है लेकिन प्रत्याशी प्रचार की बजाय फैमिली की निगरानी में बैठा है।
क्यों देखें
फैमिली ड्रामा में इंट्रेस्ट हो तो पहली फुरसत में निकल जाइए देखने। सुपर स्टार कहलाए जाने वाले करण खान और प्रकाश अवस्थी के फैन हैं तो यह फिल्म आपके लिए ही बनी है।